ये क़लम सब कुछ ही लिख जाए ज़रूरी तो नहीं
हर दफ़ा काग़ज़ भी भर पाए ज़रूरी तो नहीं
ख़त अधूरा हो भले ही अर्थ गहरा रखता है
पर समझ हर एक को आए ज़रूरी तो नहीं
कुछ सफ़र जाते हैं बेशक हादसों की ओर भी
राह हर मंज़िल को ही जाए ज़रूरी तो नहीं
मुझको ये दुनिया समझती है बहुत शादाब हूँ
ज़ख़्म सब आँखों को दिख पाए ज़रूरी तो नहीं
कुछ परिन्दें रात भर यूँ ही भटकते हैं फ़िज़ूल
हर परिन्दा शमअ को पाए ज़रूरी तो नहीं
फूल भी कुछ ज़िन्दगी भर की चुभन दे जाते हैं
चोट बस काँटों से ही आए ज़रूरी तो नहीं
माना तुम पर चढ़ रहा है रंग गहरा इश्क़ का
पर नशा मुझ पर भी छा जाए ज़रूरी तो नहीं
आशिक़ी इक भूल है 'रेहान' कहते फिरते हो
कोई हर ग़लती पे पछताए ज़रूरी तो नहीं
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