शहर भर पर 'अज़ाब आता है
जब भी वो बे-नक़ाब आता है
वो भी 'इज़्ज़त-मआब आता है
शाख़ पर जब गुलाब आता है
मुँह पे डाले नक़ाब आता है
छत पे जब माहताब आता है
जब हुजूम-ए-सहाब आता है
बर्क़ पर भी शबाब आता है
ज़ुल्म बढ़ते हैं रफ़्ता-रफ़्ता और
यक-ब-यक इंक़िलाब आता है
तेज़-रौ याद आती है उसकी
जिस तरह सैल-ए-आब आता है
जुर्म कितने हैं नेकियाँ कितनी
रोज़-ए-महशर हिसाब आता है
रू-ब-रू अच्छे दिन नहीं आते
जब भी आता है ख़्वाब आता है
क़हर ढाता है नाज़ का लश्कर
जब किसी पर शबाब आता है
अब कहीं फ़ाख़्ता नहीं महफ़ूज़
नौचने पर 'उक़ाब आता है
लब पे आती हैं सौ तमन्नाएँ
सतह पर ज्यों हबाब आता है
दम निकलता है काली रातों का
सज के जब आफ़ताब आता है
मय-कदा सिर्फ़ मैं नहीं जाता
वो भी 'इज़्ज़त-मआब आता है
लगने लगता है और भी कमसिन
जब किसी पर शबाब आता है
सज सँवरता है जब वो शोला रूह
हर तरफ इल्तिहाब आता है
खुलने लगते हैं बाब महशर के
ज़ुल्म पर जब शबाब आता है
ऐसे आता है मिलने वो साहिल
जैसे 'आली-जनाब आता है
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