ग़ज़ब का दिल पे लगाया गया निशाना भी
पड़ेगा इश्क़ में भारी ये जाँ बचाना भी
चलो ये ठीक है दो चार दिन छुपाना भी
मगर है इश्क़ किसी से तो फिर जताना भी
शब-ए-विसाल है पर्दा न कीजिये हमसे
अमाँ यूँ ठीक नहीं है नज़र चुराना भी
ये राज़ भूखे परिंदों को कौन समझाए
वहीं पे मौत खड़ी है जिधर है दाना भी
वो जिसकी नींव में शामिल लहू हमारा है
नहीं है हम को उसी घर में इक ठिकाना भी
तमाम उम्र गँवाने के बाद जाना है
ये ज़िंदगी तो हक़ीक़त भी है फ़साना भी
मुफ़ायलुन फ़यलातुन मुफ़ायलुन फ़ैलुन
नहीं है सहल ग़ज़ल में ये सर खपाना भी
ग़ज़ल ग़ज़ल है तराना नहीं मज़ाहिब का
गली गली में नहीं इस का इल्म-ख़ाना भी
जहान-ए-शेर-ओ-सुख़न में हैं लाख पीर मगर
किसी से कम तो नहीं दाग़ का घराना भी
सुकूँ से जी न सके हम न मर सके साहिल
पड़ा है इश्क़ में भारी ये दिल लगाना भी
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