बला से दिन तो ढला शुक्र है कि रात हुई
ग़म-ए-हयात से थोड़ी बहुत नजात हुई
ये ज़िंदगी के तक़ाज़े ये मौत की दस्तक
हमारी ज़ात पे क्या क्या न वारदात हुई
ज़ियादा-तर तो मैं ख़ुद से ही हम-कलाम रहा
कभी कभी तो मगर आप से भी बात हुई
ये दिल-ख़राश से तेवर ये ख़श्म-गीं आँखें
मुझे बचाओ कि फिर चश्म-ए-इल्तिफ़ात हुई
वो बादलों की गरज थी कि बिजलियों की चमक
वो जब ज़मीन पे उतरी तुम्हारी ज़ात हुई
शब-ए-विसाल है और तिश्ना लब है रिंद कोई
कोई बताए भला ये भी कोई बात हुई
वो ख़ामुशी के तराने वो रक़्स-ए-तन्हाई
शब-ए-फ़िराक़ मिरी मुद्दत-ए-हयात हुई
तू बात बात में जन्नत की बात करता है
तो फिर बता कभी तेरी ख़ुदा से बात हुई
तू आज आया ‘बशर’ की मिज़ाज-पुर्सी को
तुझे ख़बर है कि अर्सा हुआ वफ़ात हुई
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