ज़िन्दगी के नाम पर घुट घुटके मरना छोड़ दे
ख़्वाब से कहिए कि ताबीरों का पीछा छोड़ दे
वो सरापा गुल अगर मुझको अकेला छोड़ दे
मेरी ग़ज़लों में गुल-ए-नग़्मा महकना छोड़ दे
कब से दरवाज़े पे दस्तक दे रही है ज़िन्दगी
ऐ ग़म-ए-जानाँ मुझे कुछ देर तन्हा छोड़ दे
आ इसी पर मुत्तफ़िक़ हो लें रक़ीब-ए-रू-सियाह
मैं भी सहरा छोड़ता हूँ तू भी लैला छोड़ दे
सोच की गलियों में रातें ठोकरें खाती फिरें
उस दरीचे से अगर महताब उगना छोड़ दे
अपने ही झोंकों से बुझ जाए न ये अपना दिया
ला के सम पर अब मिरे गीतों को लहरा छोड़ दे
जिसकी फ़ितरत में न हो हुस्न-ए-अना का बाँकपन
वो क़बीले से निकल जाए क़बीला छोड़ दे
अब तो करना ही पड़ेगा फ़ैसला तुझको 'बशर'
या तो घर को घर समझ या घर का रस्ता छोड़ दे
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