अगर शिकवे इबादत में अभी भी कर रहा हूँ मैं
तो इक फूटे हुए बर्तन में पानी भर रहा हूँ मैं
ख़ला में जो भरा है दिख रहा ये ही तो है विस्तार
जिसे ख़ाली समझने की ख़ताएँ कर रहा हूँ मैं
सुखी है वो बशर रहता है जो हर हाल में राज़ी
मगर इस रम्ज़ से अनजान जीवनभर रहा हूँ मैं
मुझे जो कह रहे हैं बूंद उनको ये नहीं मालूम
इसी इक बूंद से पहले महासागर रहा हूँ मैं
भँवर ये मोह माया का मुझे कब का डुबो देता
तेरी रहमत है ये जो संग होकर तर रहा हूँ मैं
गुनाहों को मेरे बख़्शा बनाया बेहतरीं मुझको
वगरना सच कहूँ तो सबसे ही बद-तर रहा हूँ मैं
नहीं है ख़ौफ़ इस दिल में किसी तूफ़ान का दिलबर
यक़ीं डोले न माँझी पर इसी से डर रहा हूँ मैं
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