एक बस तू ही नहीं मुझ से ख़फ़ा हो बैठा

  - Farhat Shahzad

एक बस तू ही नहीं मुझ से ख़फ़ा हो बैठा
मैंने जो संग तराशा था ख़ुदा हो बैठा

उठ के मंज़िल ही अगर आए तो शायद कुछ हो
शौक़-ए-मंज़िल तो मिरा आबला-पा हो बैठा

मस्लहत छीन ली है क़ुव्वत-ए-गुफ़्तार मगर
कुछ न कहना ही मिरा मेरी ख़ता हो बैठा

शुक्रिया ऐ मिरे क़ातिल ऐ मसीहा मेरे
ज़हर जो तू ने दिया था वो दवा हो बैठा

जान-ए-शहज़ाद को मिन-जुमला-ए-आ'दा पा कर
हूक वो उट्ठी कि जी तन से जुदा हो बैठा

  - Farhat Shahzad

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