मेरी सुब्ह-ए-ग़म बला से कभी शाम तक न पहुंचे
मुझे डर ये है बुराई तेरे नाम तक न पहुंचे
मेरे पास क्या वो आते मेरा दर्द क्या मिटाते
मेरा हाल देखने को लब-ए-बाम तक न पहुंचे
हो किसी का मुझ पे एहसांये नहीं पसंद मुझ को
तेरी सुब्ह की तजल्ली मेरी शाम तक न पहुंचे
तेरी बेरुख़ी पे ज़ालिम मेरा जी ये चाहता है
कि वफ़ा का मेरे लब पर कभी नाम तक न पहुंचे
मैं फ़ुग़ान-ए-बे-असर का कभी मोतरिफ़ नहीं हूं
वो सदा ही क्या जो उन के दर-ओ-बाम तक न पहुंचे
वो सनम बिगड़ के मुझ से मेरा क्या बिगाड़ लेगा
कभी राज़ खोल दूंमैं तो सलाम तक न पहुंचे
मुझे लज़्ज़त-ए-असीरी का सबक़ पढ़ा रहे हैं
जो निकल के आशियांसे कभी दाम तक न पहुंचे
उन्हें मेहरबांसमझ लें मुझे क्या ग़रज़ पड़ी है
वो करम का हाथ ही क्या जो अवाम तक न पहुंचे
हुए फ़ैज़-ए-मय-कदा से सभी फ़ैज़याब लेकिन
जो ग़रीब तिश्ना-लब थे वही जाम तक न पहुंचे
जिसे मैंने जगमगाया उसी अंजुमन में साक़ी
मेरा ज़िक्र तक न आए मेरा नाम तक न पहुंचे
तुम्हें याद ही न आऊंये है और बात वर्ना
मैं नहीं हूंदूर इतना कि सलाम तक न पहुंचे
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