आवारगी हो गई है ख़स्ता-जिगर
मैंने किया आज ही तय घर का सफ़र
घर भी कहे सुन ज़रा तू ऐ बे-ख़बर
बिन हम-नफ़स जज़्ब सारे हैं बे-बसर
याद आ गया घर तुझे जब बोला किवाड़
इक कैफ़ियत जाग उठी मुझमें मुख़्तसर
धुँधली नज़र खिड़कियों की मुझ पर पड़ी
बोली रहे किस नशेमन में रात भर
उकता के आँगन मिरा मुझसे ये कहे
भटके दिशा या हुआ अब घर रह-गुज़र
पहले क़दम पर ही सीढ़ी ने तंज़ में
टोका के मंज़िल नहीं मैं तेरी बशर
आता मुझे देख छत पर चौंकी मुँडेर
क्या बात है 'अर्श आया है फ़र्श पर
तुम पर हमारा नहीं 'माही' इख़्तियार
अब हम तुम्हें याद आएँ बाद-ए-सफ़र
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