कहीं पर है ज़मीं सूखी कहीं बादल बरसता है
कोई इक बूँद को तरसे कहीं दरिया भरा सा है
चमन में हैं शजर ऐसे समर पत्ते हसीं गुलपोश
मगर ताउम्र होता कब परिन्दों का बसेरा है
सफ़र तन्हा न है मंज़िल मुसलसल चलते जाना तू
जहाँ में हर किसी ने ख़ुद तलाशा अपना रस्ता है
रहेगा कब तलक यूँ मुंतज़िर आज़ादी के प्यारे
थे जिनके हौसले ज़्यादा उन्होंने तख़्त पलटा है
जवानी छोड़ जाएगी नफ़स भी बेवफ़ा होगी
ढले जब उम्र तो फिर हर कोई बच के निकलता है
मिली नाकामियों से जाना रिश्तों की हक़ीक़त को
कि हर चेहरे के पीछे भी छिपा इक और चेहरा है
किसी मतलब की ख़ातिर ही अदब से मिल रहा है तू
वगरना तेरा लहजा कब हुआ शीरे से मीठा है
लिखा जब हाल-ए-दिल अपना 'प्रिया' को ये समझ आया
जो उतरा काग़ज़ों पर वो लहू का मेरे क़तरा है
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