अब कोई राह भी आसान नहीं देखने में
देखते रहते हैं और ध्यान नहीं देखने में
कितनी वीरान नज़र आती है ता-हद्द-ए-नज़र
यही दुनिया कि जो वीरान नहीं देखने में
ख़ाली तन्हाई ख़ज़ानों से भरी रहती है
और यहाँ कोई भी सामान नहीं देखने में
इन दिनों फ़ुर्सत-ए-ता'बीर कहाँ मुमकिन है
इन दिनों ख़्वाब भी आसान नहीं देखने में
वैसे तो हिज्र में उस को भी नहीं कोई मलाल
वैसे तो मैं भी परेशान नहीं देखने में
सारे कमरों में कोई रेत उड़ाती है मुझे
ये मिरा घर कि बयाबान नहीं देखने में
इक नज़र सू-ए-मलामत भी अगर देखा करें
मैं समझता हूँ कि नुक़सान नहीं देखने में
उस जगह भी कोई इम्कान निकल आता है
जिस जगह कोई भी इम्कान नहीं देखने में
इतना हैरान रहा हूँ तो बना हूँ ऐसा
मैं वो इक शख़्स कि हैरान नहीं देखने में
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