लड़खड़ाती है क़लम रंगीनियाँ ही क्यों लिखूँ
लू से जलता है बदन पुर्वाइयाँ ही क्यों लिखूँ
दिख रही हों जब मुझे हैवानियत की बस्तियाँ
तो इन्हें महबूब की शैतानियाँ ही क्यों लिखूँ
देख लूँ मैं जब कभी बूढ़ी भिखारन को कहीं
क्यों लिखूँ ग़ज़लों में परियाँ रानियाँ ही क्यों लिखूँ
फूल से बच्चों के चेहरे भूख से बेरंग हों
तो बता ऐ दिल मिरे फिर तितलियाँ ही क्यों लिखूँ
माँ तिरे चेहरे पे जब से झुर्रियाँ दिखने लगीं
और भी लिखना है कुछ रानाइयाँ ही क्यों लिखूँ
क्यों लिखूँ ज़ुल्फ़-ओ-लब-ओ-रुख़सार पे नग्मे बहुत
प्यार की पहली नज़र रुस्वाइयाँ ही क्यों लिखूँ
लिख तो सकता हूँ बहुत सी ख़ुशनुमा ऊँचाइयाँ
फिर ग़मों की ही बहुत गहराइयाँ ही क्यों लिखूँ
क्यों लिखूँ दोनों तरफ़ दोनों तरफ़ की क्यों लिखूँ
रौशनी लिख दूँ मगर परछाइयाँ ही क्यों लिखूँ
जंग के मैदान में ये ख़ून या सिन्दूर है
शोर जब भरपूर है शहनाइयाँ ही क्यों लिखूँ
पेट की ख़ातिर जो हरदम तोड़ता हो तन बदन
चैन से बैठा नहीं अँगड़ाइयाँ ही क्यों लिखूँ
मैं लिखूँ दुनिया के हर इक आदमी की ज़िंदगी
मौत की आमद या फिर बीमारियाँ ही क्यों लिखूँ
ये नए लड़के जो सोलह साल के ही हैं अभी
इनकी ये मदमस्तियाँ-नादानियाँ ही क्यों लिखूँ
ज़िंदगी अपनी अभी तो ज़िंदगी से है जुदा
अब मगर वीरानियाँ-बर्बादियाँ ही क्यों लिखूँ
हाँ मिरे बेटे लिखूँगा मैं तुझे मेले बहुत
मैं अकेला ही जिया तन्हाइयाँ ही क्यों लिखूँ
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