मत कहो कोई मुझे क्या ख़ाक कर पाया हूँ मैं
ख़ाक करने को नहीं इस दुनिया में आया हूँ मैं
मेरी पलकों के तले अब ख़्वाब लाखों दफ़्न हैं
आज फिर कहता हूँ ये मनहूस इक साया हूँ मैं
इक अधूरा गीत था मैं कल तलक जिनके बिना
वो बहारें आज पीछे छोड़कर आया हूँ मैं
इतनी क्यों बेचैन है तू इस घनेरी रात में
ले मुझे अब देख ले अब चाँद बन आया हूँ मैं
छाने को तो आज तक छप्पर नहीं छाया कभी
बादलों के गाँव पर बादल बना छाया हूँ मैं
चाह थी बन जाऊँगा मैं भी बहार-ए-ज़िंदगी
काँटा बनके रह गया गुल भी न बन पाया हूँ मैं
मौत मुझको भी जगह दे अपने आँचल में कहीं
ज़िंदगी की गोद में कुछ टूट कर आया हूँ मैं
मेरे अपने करते हैं कुछ क़द्र मेरी इस क़दर
जैसे इनको राह में सिक्का पड़ा पाया हूँ मैं
मैंने तो माना यही इंसानियत बिकती नहीं
और फिर बाज़ार में ख़ुद को खड़ा पाया हूँ मैं
मेरे मुँह को ताकते हैं लोग भी कुछ इस तरह
इनके हिस्से का निवाला भी कभी खाया हूँ मैं
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