अजी यकीं मानिए था पहले पर आज कुछ भी नही, कहीं भी
कि इस जहाँ में तिरी कमी का इलाज कुछ भी नही, कहीं भी
सितम कि दुख मेरा लिखने से भी गया नहीं सो मैं चीखता हूँ
हरी भरी फ़स्ल है प इस में अनाज कुछ भी नही, कहीं भी
मलाल है मैंने उसको ये हक़ दिया था दिल तोड़े, दिल दुखाए
बिछड़ने वालों बिछड़ने का अब रिवाज कुछ भी नहीं, कहीं भी
अगर वो कहती तुम्हारी हूँ मैं, मैं जंग दुनिया से जीत जाता
सुना है दो लोग पास हो जब समाज कुछ भी नही, कहीं भी
उजाले आँखों के ख़त्म यानी, है तीरगी के गिरफ़्त में हम
पर' कौन समझे अगर नही तू सिराज कुछ भी नही,कहीं भी
कमाल देखें कि धड़कनों को पता है बस एक नाम तेरा
ऐ 'नीर' क्या सच में दूजा और' कोई साज़ कुछ भी नही, कहीं भी
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