ओढ़ कर यादों का कंबल यूँ गुज़रता ये दिसम्बर

  - Harpreet Kaur

ओढ़ कर यादों का कंबल यूँ गुज़रता ये दिसम्बर
धुन्ध की चादर में लिपटा सा सिमटता ये दिसम्बर

ज़िन्दगी जाने न किसको ढूँढती रहती हमेशा
मुट्ठी भर सी धूप पाने को तरसता ये दिसम्बर

वक़्त की फ़ितरत रुके बिन बढ़ते चलना इसको हर पल
चाह के भी फिर कहाँ जा के ठहरता ये दिसम्बर

सर्द सी इस रात की तन्हाई में अश्कों में गुम से
यूँ अकेले काँपता सा फिर सिहरता ये दिसम्बर

जब लगे गुलज़ार होने से लगे हैं फिर गुलिस्ताॅं
आ गया है ले बहारों को निखरता ये दिसम्बर

  - Harpreet Kaur

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