किनारे पर जो मिलता है समंदर में नहीं रहता
उसी पर आता है दिल जो मुकद्दर में नहीं रहता
की पहले एक आईना सजाना तोड़ देना फिर
ये भी तो इक हुनर है जो की शायर में नहीं रहता
अगर वो होते इंसाँ तो समझते फिर मुहब्बत को
धड़कता हो अगर दिल तो वो पत्थर में नहीं रहता
मिरे घर आए थे वो चाँद का रिश्ता लिए अपने
ज़मीं का फूल तो उस के बराबर में नहीं रहता
खुदा से कैसे माँगू मैं मुकद्दर में उसे मेरे
किनारा कोई भी हो पर वो सागर में नहीं रहता
बिना तेरे मैं कैसे बाग़ से तेरे निकल आऊँ
निकल आता अगर तो मैं मेरे घर में नहीं रहता
ज़माना ये परिंदे को कब उड़ने देता है खुलकर
परिंदा उड़ गया तो फिर वो पिंजर में नहीं रहता
कभी आया था सिलने कोई टूटा हुआ दिल राज
ये सीने का हुनर कोई रफ़ूगर में नहीं रहता
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