मसअ'ले ज़ीस्त के सबको यूँ सुनाया न करें
अश्क़ महफ़िल में सर-ए- आम बहाया न करें
मेरी आँखें किसी मंज़र का नहीं तालिब अब
रौनक-ए- दुनिया मुझे आप दिखाया न करें
माना अंधा हूँ मगर रास्ते से वाक़िफ़ हूँ
मुझको जाना है किधर आप बताया न करें
ख़ौफ़ खाते हैं फ़क़त नाम-ए- क़ज़ा से सब याँ
लेके कांधे पे जनाज़े को घुमाया न करें
ख़्वाब कोई न भटक जाए कहीं राह अपनी
रात होते ही चराग़ों को बुझाया न करें
मेरी वहशत को तवायफ़ का भरम होता है
यूँ सर-ए-शाम दर-ओ-बाम सजाया न करें
मेरे हालात को ख़ामोशी से देखें चल दे
मेरे मरने की ख़बर मुझको सुनाया न करें
रेत साहिल की ये कहती रही है सदियों से
ये मकाँ मशग़ला है आप बनाया न करें
पागलों जैसे हँसी आती है ख़ुद पर मुझको
बारहा याद मेरी मुझको दिलाया न करें
मेरी आवारगी की बढ़ती है शिद्दत इससे
किस्से सहरा के मुझे आप सुनाया न करें
ख़्वाब को ही सही पर होने दें पूरा , गहरी
नींद से "हैफ़" को यक दम से उठाया न करें
As you were reading Shayari by Aman Kumar Shaw "Haif"
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