आलम-ए-वहशत में की है गुफ़्तगू दीवार से
क़त्ले ख़ामोशी किया है ख़ंज़रो तलवार से
यूँ नहीं बस देखने में लगते हैं बेदार से
रतजगे कितने किए हैं पूछिए बीमार से
दिन गुज़ारा कैसे हमने रात कैसे काटी है
जानना गर हो तो पूछो इस दिले बेज़ार से
मुफ़लिसी की आग में माना झुलस कर मर गये
भीख में मांगी न दौलत पर किसी ज़रदार से
क्यूँ समन्दर पीने बैठे पूछिए हमसे नहीं
इन्तहां-ए-तिश्नगी बस देखिए अब्सार से
काम लेते ही रहे हैं मुझसे मेरे दोस्त सब
आप भी ले लीजिए कुछ काम मुझ बेगार से
ख़ाक वो गुलशन हुआ जिसमे हसीं गुल खिलते थे
अब तो ज़ीनत है चमन की चार सू बस ख़ार से
लाख तस्वीरें बनाओ ख़ूब रंगो बू भरो
कम हरिक तस्वीर होगी उसके बिन शहकार से
लोग सारे शहर के हमदर्द मेरे बन गए
पूछिए मत क्या मिला इस ग़म के कारोबार से
बात दिल की दिल में ही मुझको दबाकर रखनी थी
कहके तुझसे गिर गया मैं ख़ुद के ही मेयार से
डूबने वाले "अमन" उस पार चिल्लाते रहे
देखते सब रह गए बस दरिया के इस पार से
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