मंज़िल-ए-मकसूद पा के भी सुकूँ हासिल नहीं
आ गया मैं जिस जगह शायद मेरी मंज़िल नहीं
आसरा है कश्तियों को साहिल-ए- आबाद का
क्या सफ़ीनें काम आये गर कोई साहिल नहीं
हौसले भी पस्त होते देखे हैं उनके यहाँ
कहते थे जो बारहा के ज़िन्दगी मुश्किल नहीं
घोटते हैं सब गला जब अपने अरमानों का याँ
कौन फिर दावा करे के अपना वो क़ातिल नहीं
पीठ पे खंज़र चुभो के इश्क़ में तू ख़ुश न हो
होश खो बैठा मगर वो शख़्स है ग़ाफ़िल नहीं
खींचती है ख़ाक सबको बारहा अपनी तरफ
इसमे जब तक मिल न जाये आदमी कामिल नहीं
लाश अपनी सर पे रखकर फिर रहा हूँ दर ब दर
मेरे जैसा दुनिया में होगा कोई हामिल नहीं
ढ़ूंढ़ना मुझको न यारो इस जहां की भीड़ में
भीड़ का हिस्सा "अमन" हूँ भीड़ में शामिल नहीं
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