मर गया हूँ मैं यार अंदर से
दिल लगा बैठा एक पत्थर से
उससे नफ़रत बहुत ही ज़्यादा है
है मुझे इश्क़ एक नंबर से
उसका रिश्ता हुआ दिसंबर में
मुझको नफ़रत हुई दिसंबर से
ख़ुद पे लानत मैं भेजता हूँ अब
मैं गया हार एक अफ़सर से
क्या मुहब्बत में रोना जाइज़ है
मैंने पूछा है इक क़लंदर से
इश्क़ के ख़्वाब तुम न दिखलाओ
अब मैं डरता हूँ ऐसे मंज़र से
अब तो होने लगी है ख़ुद से घिन
एक उम्मीद की थी कमतर से
मैं जो माँगू वो दे दिया कर तू
ख़ाली लौटा हूँ मैं तिरे दर से
अब तो अफ़सर पसंद है उसको
बे-वफ़ाई तो की है टेलर से
तुझको मरना वसीम है क्या अब
बात कर ली है इक समुंदर से
As you were reading Shayari by Vaseem 'Haidar'
our suggestion based on Vaseem 'Haidar'
As you were reading undefined Shayari