वक़्त-ए-फ़ुर्सत जो किताबों में सफ़र करता हूँ
मैं तख़य्युल के सहाबों में सफ़र करता हूँ
जब भी उन मस्त निगाहों में सफ़र करता हूँ
ऐसा लगता है शराबों में सफ़र करता हूँ
रू-ब-रू आ के तो खो देता हूँ खु़द पर क़ाबू
इसलिए मैं तिरे ख़्वाबों में सफ़र करता हूँ
बारहा रुख़ से हटाते हुए जु़ल्फ़-ए-जानाँ
सेह्र-अंगेज़ हिजाबों में सफ़र करता हूँ
खु़द से ही छेड़ दिया करता हूँ बातें तेरी
और फिर खु़द ही इक़ाबों में सफ़र करता हूँ
बे-शऊरी की सनद है तेरा चुभता लहजा
मैं तो शाइर हूँ गुलाबों में सफ़र करता हूँ
कहीं मजनूँ कहीं राँझा कहीं 'साहिल' बनकर
मैं मुहब्बत के निसाबों में सफ़र करता हूँ
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