Akhtar Gwaliori

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@akhtar-gwaliori

Akhtar Gwaliori shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Akhtar Gwaliori's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
फूल जलते हैं कहीं बर्ग-ओ-समर जलते हैं
फ़स्ल-ए-गुल आई है बाग़ों में शजर जलते हैं

अल्लह अल्लाह जबीन-ए-रुख़-ए-जानाँ की तपिश
ऐसा लगता है कि अब शम्स-ओ-क़मर जलते हैं

क्या ग़ज़ब है कि तिरे शहर में ऐ जान-ए-ग़ज़ल
जिस्म-ओ-जाँ ज़ेहन-ओ-नज़र क़ल्ब-ओ-जिगर जलते हैं

जिस तरफ़ देखिए इक आग का दरिया है रवाँ
रास्ते ख़ून में डूबे हैं नगर जलते हैं

बुझ चुका हूँ मैं मगर अब भी मिरे नक़्श-ए-क़दम
देख लो जा के सर-ए-राहगुज़र जलते हैं

जिन के सीनों में फ़रोज़ाँ है वफ़ा की शमएँ
रोज़-ओ-शब जलते हैं वो शाम-ओ-सहर जलते हैं

आप जिस शहर को पुर-अम्न समझते हैं हुज़ूर
वाक़िआ' ये है उसी शहर में घर जलते हैं

दफ़अ'तन नींद से मैं चौंक उठा ऐ 'अख़्तर'
मैं ने जब ख़्वाब में देखा कि हुनर जलते हैं
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Akhtar Gwaliori
सोचना छोड़ दिया हम ने कि कल क्या होगा
इस से बेहतर ग़म-ए-दौराँ तिरा हल क्या होगा

तुम मुझे शहर-बदर कर तो रहे हो लेकिन
ये भी सोचा है कि अंजाम-ए-ग़ज़ल क्या होगा

मैं तो कर लूँ ब-खु़शी तुझ को गवारा लेकिन
ग़म-ए-तन्हाई तिरा दर्द-ए-अमल क्या होगा

जिस की ख़ुशबू से महकते हैं दर-ओ-बाम-ए-हयात
कुछ सही मौसम-ए-गुल इस का बदल क्या होगा

जगमगाता है जो हर ज़र्रे के दिल में अक्सर
हाए वो हुस्न-ए-सनम हुस्न-ए-अज़ल क्या होगा

ख़ुद मसीहा है यहाँ आह-ओ-फ़ुग़ाँ में मसरूफ़
इस से औरों की तकालीफ़ का हल क्या होगा

गेसू-ए-वक़्त उलझते ही चले जाते हैं
हर बशर सोच में डूबा है कि कल क्या होगा

ऐ मेरे भूलने वाले कभी ये भी सोचा
जगमगा उट्ठे जो यादों के कँवल क्या होगा

हर-नफ़स दार की मानिंद लगे है 'अख़्तर'
ज़िंदगी ये है तो फिर रंग-ए-अजल क्या होगा
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Akhtar Gwaliori
छू लिया शो'ला-ए-रुख़्सार-ए-सनम देखो तो
कितने ना-आक़िबत-अँदेश हैं हम देखो तो

कोई शिकवा है न फ़रियाद न ग़म देखो तो
जाने अब कौन सी मंज़िल पे हैं हम देखो तो

रंज-ओ-आलाम की जलती हुई दोपहरों में
तुम भी चल कर कभी दो-चार क़दम देखो तो

डूबी डूबी सी नज़र आती है क्यों नब्ज़-ए-हयात
आज क्या बात है क्यों दर्द है कम देखो तो

दीदा-ओ-दिल में लिए फिरते हैं हम आग ही आग
तुम को अंदाज़-ए-तग़ाफ़ुल की क़सम देखो तो

क्या किसी रिंद का दिल तोड़ दिया ज़ाहिद ने
क्यों लरज़ने लगी दीवार-ए-हरम देखो तो

हम से ता'मीर-ए-ज़माना है हमीं पर यारो
तोड़े जाते हैं ज़माने के सितम देखो तो

उन को एहसास है अक्सर मेरी बर्बादी का
किस बुलंदी पे है अब क़िस्मत-ए-ग़म देखो तो
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