तिरी तलाश में जिस वक़्त हम निकलते हैं
क़दम भी चलते हैं नक़्श-ए-क़दम भी चलते हैं
जो तुंद-ओ-तेज़ हवाओं का रुख़ बदलते हैं
जहाँ में सिर्फ़ उन्हीं के चराग़ जलते हैं
इसी लिए मिरे अरमाँ नहीं निकलते हैं
कि तेज़ धूप में चलने से पाँव जलते हैं
सू-ए-हरम ही मुड़ें हम ये क्या ज़रूरी है
तिरी गली से कई रास्ते निकलते हैं
तुम्हारी साज़िश-ए-पैहम को मात दे दे कर
वो एक हम हैं जो हर बार बच निकलते हैं
हम उन को ढूँडने निकले हैं देखिए क्या हो
कि जो नुक़ूश-ए-कफ़-ए-पा मिटा के चलते हैं
उठा के दोष पे 'अख़्तर' मोहब्बतों की सलीब
हम आज हुस्न के बाज़ार में निकलते हैं
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