Alamtaab Tishna

Alamtaab Tishna

@alamtaab-tishna

Alamtaab Tishna shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Alamtaab Tishna's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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  • Ghazal
सफ़र में राह के आशोब से न डर जाना
पड़े जो आग का दरिया तो पार कर जाना

ये इक इशारा है आफ़ात-ए-ना-गहानी का
किसी मक़ाम से चिड़ियों का कूच कर जाना

ये इंतिक़ाम है दश्त-ए-बला से बादल का
समुंदरों पे बरसते हुए गुज़र जाना

तुम्हारा क़ुर्ब भी दूरी का इस्तिआरा है
कि जैसे चाँद का तालाब में उतर जाना

तुलू-ए-महर-ए-दरख़्शाँ की इक अलामत है
उठाए शम-ए-यक़ीं उस का दार पर जाना

थे रज़्म-गाह-ए-मोहब्बत के भी अजब अंदाज़
उसी ने वार किया जिस ने बे-सिपर जाना

हर इक नफ़स पे गुज़रता है ये गुमाँ जैसे
चराग़ ले के हवाओं से जंग पर जाना

हम अपने इश्क़ की अब और क्या शहादत दें
हमें हमारे रक़ीबों ने मो'तबर जाना

मिरे यक़ीं को बड़ा बद-गुमान कर के गया
दुअा-ए-नीम-शबी तेरा बे-असर जाना

हर एक शाख़ को पहना गया नुमू का लिबास
सफ़ीर-ए-मौसम-ए-गुल का शजर शजर जाना

ज़माना बीत गया तर्क-ए-इश्क़ को 'तिश्ना'
मगर गया न हमारा इधर उधर जाना
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Alamtaab Tishna
मैं अपनी जंग में तन-ए-तन्हा शरीक था
दुश्मन के साथ सारा ज़माना शरीक था

इंजीर ओ शीर बाँटता फिरता है शहर में
कल तक जो मेरी नान-ए-जवीं का शरीक था

मेरे ख़िलाफ़ है वो गवाही में पेश पेश
मंसूबा-बंदियों में जो मेरा शरीक था

मेरे क़िसास का भी हुआ है वो मुद्दई
जो मेरे क़त्ल में पस-ए-पर्दा शरीक था

कार-ए-जहाँ में भी वही मेरा शरीक है
दुख-दर्द में जो लम्हा-ब-लम्हा शरीक था

कश्ती के डूबने का मुझे ग़म नहीं मगर
मौजों की साज़-बाज़ में दरिया शरीक था

हद हो गई थी हम से मोहब्बत में कुफ़्र की
जैसे ख़ुदा-न-ख़्वास्ता वो ला-शरीक था

'तिश्ना' ये तुझ को संग-ए-मलामत उसी के हैं
पिंदार-ए-इश्क़ में जो अना का शरीक था
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Alamtaab Tishna
असीर-ए-दश्त-ए-बला का न माजरा कहना
तमाम पूछने वालों को बस दुआ कहना

ये कहना रात गुज़रती है अब भी आँखों में
तुम्हारी याद का क़ाएम है सिलसिला कहना

ये कहना अब भी सुलगता है जिस्म का चंदन
तुम्हारा क़ुर्ब था इक शोला-ए-हिना कहना

ये कहना चाँद उतरता है बाम पर अब भी
मगर नहीं वो शब-ए-माह का मज़ा कहना

ये कहना मसनद-ए-शाख़-ए-नुमू पे था जो कभी
वो फूल सूरत-ए-ख़ुश्बू बिखर गया कहना

ये कहना क़र्या-ए-जाँ में हैं दम-ब-ख़ुद सब लोग
तमाम शहर हुआ मक़्तल-ए-नवा कहना

ये कहना हसरत तामीर अब भी है दिल में
बना लिया है मकाँ तो मकाँ-नुमा कहना

ये कहना हम ने ही तूफ़ाँ में डाल दी कश्ती
क़ुसूर अपना है दरिया को क्या बुरा कहना

ये कहना हो गए हम इतने मस्लहत-अंदेश
चले जो लू तो उसे अभी ख़ुनुक हवा कहना

ये कहना हार न मानी कभी अंधेरों से
बुझे चराग़ तो दिल को जला लिया कहना

ये कहना तुम से बिछड़ कर बिखर गया 'तिश्ना'
कि जैसे हाथ से गिर जाए आईना कहना
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Alamtaab Tishna
हिसार-ए-मक़्तल-ए-जाँ में लहू लहू मैं था
रसन रसन मिरी वहशत गुलू गुलू मैं था

जो रह गया निगह-ए-सोज़न-ए-मशिय्यत से
क़बा-ए-ज़ीस्त का वो चाक-ए-बे-रफ़ू मैं था

ज़माना हँसता रहा मेरी ख़ुद-कलामी पर
तिरे ख़याल से मसरूफ़-ए-गु्फ़्तुगू मैं था

था आइने में शिकस्त-ए-ग़ुरूर-ए-यकताई
कि अपने अक्स के पर्दे में हू-ब-हू मैं था

तू अपनी ज़ात के हर पेच-ओ-ख़म से पूछ के देख
क़दम क़दम मिरी आहट थी कू-ब-कू मैं था

हर एक वादी-ओ-कोहसार से गुज़रता हुआ
जो आबशार बना था वो आबजू मैं था

ख़ुतन ख़ुतन थी शलंग-ए-ग़ज़ाल मेरे लिए
बदन बदन मिरा नश्शा सुबू सुबू मैं था

तमाम उम्र की दीवानगी के ब'अद खुला
मैं तेरी ज़ात में पिन्हाँ था और तू मैं था

मआल-ए-उम्र-ए-मोहब्बत है बस यही 'तिश्ना'
मिरी तलाश था वो उस की जुस्तुजू मैं था
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Alamtaab Tishna
सिवाए-दर-ब-दरी उस को ख़ाक मिलता है
जो आसमान से अपनी ज़मीं बदलता है

मैं जब भी घर से निकलता हूँ रात को तन्हा
चराग़ ले के कोई साथ साथ चलता है

अजीब होता है नज़्ज़रगान-ए-शौक़ का हाल
रिदा-ए-माह पहन कर वो जब निकलता है

बरु-ए-चश्म रिदा-ए-हिजाब तान ली जाए
वो ज़ेर-ए-साया-ए-गुल पैरहन बदलता है

फ़रेब-ए-क़ुर्ब तो देखो कि मेरे पहलू में
तमाम रात कोई करवटें बदलता है

गुज़ार देते हैं आवारा-गर्द आग के गिर्द
जो बे-ठिकाना हैं उन का भी काम चलता है

हमारे दम से भी है मौसमों की गुल-कारी
चराग़-ए-लाला में दिल का लहू भी जलता है

मैं वो शहीद-ए-वफ़ा हूँ कि क़त्ल कर के मुझे
मिरा ग़नीम तअस्सुफ़ से हाथ मलता है

हमें नसीब हुआ ऐसी मंज़िलों का सफ़र
क़दम क़दम पे जहाँ रास्ता बदलता है

हवा-ए-दामन-ए-रंगीं ये कह गई 'तिश्ना'
हमारे सामने किस का चराग़ जलता है
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Alamtaab Tishna
आइना-ख़ाना भी अंदोह-ए-तमन्ना निकला
ग़ौर से देखा तो अपना ही तमाशा निकला

ज़िंदगी महफ़िल-ए-शब की थी पस-अंदाज़-ए-शराब
पीने बैठे तो बस इक घूँट ज़रा सा निकला

फिर चला मौसम-ए-वहशत में सर-ए-मक़्तल-ए-इश्क़
क़ुरआ-ए-फ़ाल मिरे नाम दोबारा निकला

दाद-ए-शाइस्तगी-ए-ग़म की तवक़्क़ो' बे-सूद
दिल भी कम-बख़्त तरफ़-दार उसी का निकला

है अजब तर्ज़ का रहरव दिल-ए-शोरीदा-क़दम
जब भी निकला सफ़र-ए-इश्क़ पे तन्हा निकला

वो रक़ीबों का पता पूछने आए मिरे घर
कोई तो उन से मुलाक़ात का रस्ता निकला

दर-ब-दर ख़्वार हुए फिरते हैं हम हिज्र-नसीब
जाँ-सिपारी का भी क्या ख़ूब नतीजा निकला

दिल में उठते रहे यादों के बगूले 'तिश्ना'
मुझ में सिमटा हुआ इक दर्द का सहरा निकला
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Alamtaab Tishna
मिरी दस्तरस में है गर क़लम मुझे हुस्न-ए-फ़िक्र-ओ-ख़याल दे
मुझे शहरयार-ए-सुख़न बना और एनान-ए-शहर-ए-कमाल दे

मिरी शाख़-ए-शेर रहे हरी दे मिरे सुख़न को सनोबरी
मिरी झील में भी कँवल खिला मिरी गुदड़ियों को भी ला'ल दे

तिरी बख़्शिशों में है सरवरी मिरे इश्क़ को दे क़लंदरी
जो उठे तो दस्त-ए-दुआ लगे मुझे ऐसा दस्त-ए-सवाल दे

रग-ए-जाँ में जमने लगा लहू उसे मुश्क बनने की आरज़ू
है उदास दश्त-ए-ततार-ए-दल उसे फिर शलंग-ए-ग़ज़ाल दे

कोई बात अक़रब-ओ-शम्स की कोई ज़िक्र-ए-ज़ोहरा-ओ-मुशतरी
तू बड़ा सितारा-शनास है मुझे कोई अच्छी सी फ़ाल दे

हैं ये जिस्म-ओ-जाँ की क़ुयूद क्या ख़द-ओ-ख़ाल के ये हुदूद क्या
मैं हूँ अक्स-ए-मंज़र-ए-मावरा मुझे आइनों से निकाल दे

मैं वही हूँ 'तिश्ना'-ए-बा-वफ़ा मिरा आज भी वही मुद्दआ'
न फ़िराक़ दे मुझे मुस्तक़िल न मुझे हमेशा विसाल दे
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Alamtaab Tishna
दर्द की इक लहर बल खाती है यूँ दिल के क़रीब
मौज-ए-सर-गश्ता उठे जिस तरह साहिल के क़रीब

मा-सिवा-ए-कार-ए-आह-ओ-अश्क क्या है इश्क़ में
है सवाद-ए-आब-ओ-आतिश दीदा-ओ-दिल के क़रीब

दर्द में डूबी हुई आती है आवाज़-ए-जरस
गिर्या-ए-गुम-गश्तगी सुनता हूँ मंज़िल के क़रीब

आरज़ू नायाफ़्त की है सिलसिला-दर-सिलसिला
है नुमूद-ए-कर्ब-ए-ला-हासिल भी हासिल के क़रीब

कुछ तो ऐ नज़्ज़ारगान-ए-ऐश-ए-साहिल बोलिए
कश्तियाँ कितनी हुईं ग़र्क़ाब साहिल के क़रीब

है अभी वामांदगी को इक सफ़र दरपेश और
है अभी उफ़्ताद-ए-मंज़िल और मंज़िल के क़रीब

रंग-ए-हसरत का तमाशा देखना था गर तुम्हें
रक़्स-ए-आख़िर देखते तुम आ के बिस्मिल के क़रीब

हैं वो सब 'तिश्ना' सर-ए-मंज़िल अमीर-ए-कारवाँ
जो मिले थे कारवाँ से आ के मंज़िल के क़रीब
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Alamtaab Tishna
उठते हुए तूफ़ान का मंज़र नहीं देखा
देखो मुझे गर तुम ने समुंदर नहीं देखा

गुज़रा हुआ लम्हा था कि बहता हुआ दरिया
फिर मेरी तरफ़ उस ने पलट कर नहीं देखा

इक दश्त मिला कूचा-ए-जानाँ से निकल कर
हम ने तो कभी इश्क़ को बे-घर नहीं देखा

थे संग तो बेताब बहुत नक़्श-गरी को
हम ने ही उन्हें आँख उठा कर नहीं देखा

इक उम्र से है जो मिरी वहशत का ठिकाना
ख़ुशियों की तरह तू ने भी वो घर नहीं देखा

नफ़रत भी उसी से है परस्तिश भी उसी की
इस दिल सा कोई हम ने तो काफ़र नहीं देखा

ख़्वाहिश को यहाँ हस्ब-ए-ज़रूरत नहीं पाया
हासिल को यहाँ हसब-ए-मुक़द्दर नहीं देखा

हर हाल में देखा है उसे ज़ब्त का पैकर
'तिश्ना' को कभी ज़र्फ़ से बाहर नहीं देखा
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