मैं ख़ुशबू की तरह घुल कर फ़ज़ाओं में बिखर जाती
हवाएँ हक़ में होती तो दिल-ओ-जाँ में उतर जाती
मैं ने ख़ुद को किताबों के सहारे ही बचाया है
वगरना तेरी यादों में तो जाने कब की मर जाती
मैं कैसे मान लूँ ये तू भी मुझ को याद करता है
अगर होता ये सच तो हिचकियों से मैं न मर जाती
अगर जाते हुए इक बार पीछे देख लेता तू
उसी पल में अना के आशियाने से उतर जाती
तेरे कूचे के किस चेहरे से मेरी आशनाई थी
तेरा दर छोड़ के जाती भी तो आख़िर किधर जाती
किनारे पर डुबोया है हमें दुनिया की परवाह ने
हमारी कश्ती तो वरना भँवर में भी उभर जाती
ये दुनिया आदम-ओ-हव्वा की ख़ातिर क़ैदख़ाना थी
सँवर भी जाती तो आख़िर कहाँ तक ये सँवर जाती
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