Rafiq Raaz

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Rafiq Raaz shayari collection includes sher, ghazal and nazm available in Hindi and English. Dive in Rafiq Raaz's shayari and don't forget to save your favorite ones.

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Shayari
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  • Ghazal
रंगों से ठंडे पानी के चश्मे बना दिए
काग़ज़ पे साया-दार शजर भी लगा दिए

लाऊँगा अब कहाँ से नज़ारे की ताब मैं
उस ने तो मेरी आँख से पर्दे हटा दिए

बाग़-ए-हुरूफ़-ओ-गुलशन-ए-मा'नी में देखना
किस ने ये ख़ामुशी के नए गुल खिला दिए

छोटे से अब्र पारे ने आ के सर-ए-फ़लक
अहल-ए-नज़र को दिन ढले पैग़ाम क्या दिए

बस हम तो एक छोटी सी ज़िद पे अड़े रहे
दस्तार को बचाने में सर ही कटा दिए

आँखों में रह गए हैं फ़क़त आस के सराब
दरिया वो यास के थे जो उन में बहा दिए

दिन को सफ़र कुछ और भी आसान हो गया
रातों को सब्ज़ ख़्वाब ये किस ने दिखा दिए

तरतीब से लिए हैं तुम्हारे तमाम नाम
इक और ही फ़लक पे सितारे सजा दिए

तूफ़ाँ का रूप धार लिया तेज़ साँस ने
इतना कि ख़्वाब-गाह के पर्दे हिला दिए
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Rafiq Raaz
अजीब ख़ामुशी है ग़ुल मचाती रहती है
ये आसमान ही सर पर उठाती रहती है

किया है इश्क़ तो साबित-क़दम भी रहना सीख
मियाँ ये हिज्र की आफ़त तो आती रहती है

ये जो है आज ख़राबा कभी चमन था क्या
यहाँ तो एक मगस भिनभिनाती रहती है

डरो नहीं ये कोई साँप ज़ेर-ए-काह नहीं
हवा है और वही सरसराती रहती है

मिरे ही वास्ते मंज़र ज़ुहूर करते हैं
मिरी ही आँख यहाँ जगमगाती रहती है

हवा अगरचे बहुत तेज़ है मगर फिर भी
मैं ख़ाक हूँ ये मिरे काम आती रहती है

ये कैसी चश्म-ए-तख़य्युल है ऊँघती भी नहीं
अजीब रंग के मंज़र बनाती रहती है

वो इक निगाह भी नेज़े से कम नहीं यानी
हमारे ख़ून-ए-जिगर में नहाती रहती है

क़दम भी ख़ाक पे करते हैं कुछ न कुछ तहरीर
हवा की मौज भी उस को मिटाती रहती है
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जिस्म दीवार है दीवार में दर करना है
रूह इक ग़ार है इस ग़ार में घर करना है

एक ही क़तरा तो है अश्क-ए-नदामत का बहुत
कौन से दश्त-ओ-बयाबान को तर करना है

जलते रहना भी है दीवार पे फ़ानूस के बिन
बे-ज़ेरह मार्का-ए-बाद भी सर करना है

ख़ाक हो जाने पे ऐ ख़ाक-बसर क्यूँ हो ब-ज़िद
क्या तुम्हें दोश-ए-हवा पर भी सफ़र करना है

अब इन आँखों में वो दरिया कहाँ वो चश्मे कहाँ
चंद क़तरे हैं जिन्हें लाल-ओ-गुहर करना है

फ़तह-ए-गुलज़ार मुबारक हो मगर याद रहे
अभी ना-दीदा बयाबान भी सर करना है

कुछ तो है रंग सा एहसास के पर्दे में निहाँ
जिस को मंज़र की तरह वक़्फ़-ए-नज़र करना है

गुल-ए-नौख़ेज़ को तेशा भी बना दे या-रब
संगगुल-ए-लब-बस्ता के सीने में असर करना है

एक नेज़े पे लगाने हैं कई मेवा-ए-सर
एक टहनी को समर-दार शजर करना है
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Rafiq Raaz
अब्र हूँ और बरसने को भी तय्यार हूँ मैं
तुझ को सैराब करूँगा कि धुआँ-धार हूँ मैं

अब तो कुछ और ही ख़तरात से दो-चार हूँ मैं
अपने ही सर पे लटकती हुई तलवार हूँ मैं

तब मैं इक आँख था जब तो कोई मंज़र भी न था
आज तस्वीर है तो नक़्श-ब-दीवार हूँ मैं

हिज्र के बाद के मंज़र का किनाया हूँ कोई
इक धुआँ सा पस-ए-दीवार-ए-शब-ए-तार हूँ मैं

मेरा सरमाया तो बस मंज़र-ए-बे-मंज़री है
शहर-ए-बे-अक्स का इक आईना-बरदार हूँ मैं

डाल के सर को गिरेबाँ में लरज़ उठता हूँ
मुट्ठी-भर ख़ाक नहीं एक सियह ग़ार हूँ मैं

देख शामिल ही नहीं इस में कोई मेरे सिवा
देख किस क़ाफ़िला-ए-ज़ात का सालार हूँ मैं

बस यही है मिरे होने का जवाज़ और सुराग़
इक न होने से मियाँ बर-सर-ए-पैकार हूँ मैं
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जलता हुआ जो छोड़ गया ताक़ पर मुझे
देखा न इस ने लूट के पिछले पहर मुझे

वहशत से था नवाज़ना इतना अगर मुझे
सहरा दिया है क्यूँ फ़क़त आफ़ाक़ भर मुझे

मैं गूँजता था हर्फ़ में ढलने से पेशतर
घेरा है अब सुकूत ने औराक़ पर मुझे

शाम-ओ-सहर की गर्दिशें भी देखनी तो हैं
अब चाक से उतार मिरे कूज़ा-गर मुझे

दरया-ए-मौज-खेज़ भी जिस पर सवार था
होना पड़ा सवार उसी नाव पर मुझे

मुझ में तड़प रहा है कोई चश्मा-ए-सुकूत
ज़र्ब-ए-असा से देख कभी तोड़ कर मुझे

पहुँचा किधर यहाँ न ज़मीं है न आसमाँ
अब कौन सी मसाफ़तें करनी हैं सर मुझे

थे गंज-ए-बे-क़यास तह-ए-क़ुल्ज़ुम-ए-वजूद
डूबा जो मैं तो मिल गए लाल-ओ-गुहर मुझे

जो ला सके न ताब ही मेरे जुनून की
इस दश्त-ए-कम-सवाद में दाख़िल न कर मुझे

शायद हटा है ग़ैब का पर्दा 'रफ़ीक़-राज़'
आता है नख़्ल-ए-आब पे शोअ'ला नज़र मुझे
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