ये दुनिया ग़र बने दुश्मन, तो मैं परवा नहीं करती
हर इक मौज़ू पे लफ़्ज़ अपने, कभी ज़ाया नहीं करती
सभी बहती हुई गंगा में, अपने हाथ धोते है
ज़माने ने किया है जो, मैं काम ऐसा नहीं करती
निकल जाता है जब फिर साँप, तो पीटे लकीरें सब
किसी फ़र्ज़ी मुहिम का मैं बना हिस्सा नहीं करती
यहांँ अक़्सर सभी छुप कर तसल्ली देते रहते हैं
न खुल कर साथ दे पाऊँ, तो फ़िर दावा नहीं करती
सबब है बस यही तो सरबुलंदी का मिरी यारों
सिवा रब के किसी के सामने सजदा नहीं करती
यक़ीनन मौत बरहक़ है, तो फ़िर मरने से क्या डरना
सना बेख़ौफ़ सच कहने से, घबराया नहीं करती
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