"इक्कीसवीं सदी"
दुख सुख था एक सबका अपना हो या बेग़ाना
इक वो भी था ज़माना इक ये भी है ज़माना
दादा हयात थे जब मिट्टी का एक घर था
चोरों का कोई खटका ना डाकुओं का डर था
खाते थे रूखी-सूखी सोते थे नींद गहरी
शामें भरी भरी थी आबाद थी दोपहरी
संतोष था दिलों को माथे पे बल नहीं था
दिल में कपट नहीं था आँखों में छल नहीं था
थे लोग भोले-भाले लेकिन थे प्यार वाले
दुनिया से कितनी जल्दी सब हो गए रवाना
अब्बा का वक़्त आया तालीम घर में आई
तालीम साथ अपने ताज़ा विचार लाई
आगे रिवायतों से बढ़ने का ध्यान आया
मिट्टी का घर हटा तो पक्का मकान आया
दफ़्तर की नौकरी थी तनख़्वाह का सहारा
मालिक पे था भरोसा हो जाता था गुज़ारा
पैसा अगरचे कम था फिर भी न कोई ग़म था
कैसा भरा-पुरा था अपना ग़रीब-ख़ाना
अब मेरा दौर है ये कोई नहीं किसी का
हर आदमी अकेला हर चेहरा अजनबी सा
आँसू न मुस्कुराहट जीवन का हाल ऐसा
अपनी ख़बर नहीं है माया का जाल ऐसा
पैसा है मर्तबा है इज़्ज़त वक़ार भी है
नौकर हैं और चाकर बंगला है कार भी है
ज़र पास है ज़मीं है लेकिन सुकूँ नहीं है
पाने के वास्ते कुछ क्या क्या पड़ा गँवाना
ऐ आने वाली नस्लों ऐ आने वाले लोगों
भोगा है हमने जो कुछ वो तुम कभी न भोगो
जो दुख था साथ अपने तुम से क़रीब न हो
पीड़ा जो हमने झेली तुम को नसीब न हो
जिस तरह भीड़ में हम ज़िंदा रहे अकेले
वो ज़िन्दगी की महफ़िल तुम से न कोई ले ले
तुम जिस तरफ़ से गुज़रो मेला हो रौशनी का
रास आए तुम को मौसम इक्कीसवीं सदी का
हम तो सुकूँ को तरसे तुम पर सुकून बरसे
आनंद हो दिलों में जीवन लगे सुहाना
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