मिरे हबीब मुझे हिज्र इंतिहाई दे

  - kapil verma

मिरे हबीब मुझे हिज्र इंतिहाई दे
कि रू-ब-रू न हो तू फिर भी तू दिखाई दे

मुदाम तिश्ना है तहरीक तर्ज़-ए-नौ वाली
घड़ी-घड़ी जो नए ख़ून की दुहाई दे

करे है याद तिरी गर्दिशों में यूँ भी असर
कड़क सी ठण्ड में जैसे कोई रज़ाई दे

हयात आए कहाँ से हलाक ज़र्रों में
ज़ुहूर क़ैद किए बिन नहीं रवाई दे

ये दर्द तो अभी सहना पड़ेगा सीपी को
गुहर बग़ैर न क़ुदरत कभी रिहाई दे

छिपे हैं कहकशाँ में कुछ फ़रेब के अफ़लाक
हर एक बुर्ज ज़रूरी न रहनुमाई दे

मैं मरहला-ए-जुनूनी पहुँच चुका हूँ अब
मक़ाम-ए-आख़िर-ए-उल्फ़त मुझे दिखाई दे

  - kapil verma

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