ज़िन्दगी तुझसे भी अब ये फ़ैसला होता नहीं
और मुझसे भी तिरा कुछ तस्फ़िया होता नहीं
ख़ूब समझाते रहे वो घर के रौशनदान सब
धूप गर जो मान जाती तो वग़ा होता नहीं
क्या हुई मुझसे ख़ता दरबार में तेरे ख़ुदा
मौत का लगता है कोई ज़ाबता होता नहीं
वो मिरी आवाज़ सुनकर भी यही कहती रही
ख़त्म आख़िर फोन का ये मसअला होता नहीं
ज़द में आएगा कभी बैठा है जो ये सोच कर
हर किसी के साथ में तो हादसा होता नहीं
तू भरोसा सोच कर करना मुहब्बत में 'अमित'
हर कबूतर दश्त का तो डाकिया होता नहीं
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