एक तरफ़ा मुहब्बत सज़ा है
इस सज़ा में मगर इक मज़ा है
वो गुज़र के गए यार जब से
इस गली की अलग ही फ़ज़ा है
मैं यहाँ आ गया किस जहाँ में
दुनिया ये ख़ुल्द है या लज़ा है
इक घड़ी इश्क़ में ऐसी आई
साथ में वक़्त-ए-वस्ल-ओ-कज़ा है
वो किसी और को है मुयस्सर
जो मिरी चाहत-ओ-मुक़तज़ा है
कब तलक तुम रहोगे महल में
क़ब्र की तो ज़मीं दोग़ज़ा है
फ़ैसला कर के तुम अपने मन का
पूछते हो तिरी क्या रज़ा है
As you were reading Shayari by Azhan 'Aajiz'
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