सिवा तेरे नज़र कोई न आया है मुझे
मिरे हमदम कि तूही सिर्फ़ भाया है मुझे
ठिकाने इश्क़ ने तेरे लगाया है मुझे
तिरे इस हुस्न ने शायर बनाया है मुझे
यहाँ हर शय मिरी उस्ताद है यूँ दोस्तो
सभी ने कुछ न कुछ देखो सिखाया है मुझे
मुझे आता नहीं कुछ भी सिवाए इश्क़ के
फ़क़त इक पाठ उल्फ़त का पढ़ाया है मुझे
जिसे इक आँख भर के आज तक देखा नहीं
उसी का शहर ने आशिक़ बताया है मुझे
निभाई दुश्मनी बस दोस्ती की आड़ में
सभी ने दोस्त बन कर ही हराया है मुझे
गिले शिकवे बहुत हैं तुझसे पर करता नहीं
कि तूने ज़िन्दगी कितना सताया है मुझे
दिया था मैं कि करता रौशनी तेरे लिए
भला क्या सोच कर तूने बुझाया है मुझे
अँधेरों में रखा झूटी तसल्ली दी रफ़ीक़
मुहब्बत में फ़क़त पागल बनाया है मुझे
तुझे क्या है ख़बर ऐ हम-नशीं जान-ए-नज़र
तिरी यादों ने कितनी शब जगाया है मुझे
यहाँ होता रहा ज़ेर-ओ-ज़बर मैं हर घड़ी
गिराया इसने तो उसने उठाया है मुझे
बिखरना है दुबारा टूट के आरिज़ मुझे
किसी ने ख़्वाब कह कर फिर सजाया है मुझे
As you were reading Shayari by Azhan 'Aajiz'
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