कितनी तन्हा हूँ कभी और मैं तन्हा भी नहीं
दिन में साया तो है पर रात में साया भी नहीं
एक ही शख़्स मिला इस भरी दुनिया में मुझे
जो मेरा हो तो गया पर रहा मेरा भी नहीं
दर्द देता है हमेशा मुझे इक जख़्म बहुत
जो पुराना न हुआ और जो ताज़ा भी नहीं
रोज़े रख रख के तुम्हें माँगा तहज्जुद भी पढी
मिल गया उसको कुआँ जो ज़रा प्यासा भी नहीं
क्या हुनर है तुझे ऐ इश्क़ ये बरबादी का
ज़िन्दगी बाक़ी तो है आदमी ज़िन्दा भी नहीं
ख़्वाहिशें मेरी कभी पूरी हों नामुमकिन है
मेरी क़िस्मत में तो इक टूटता तारा भी नहीं
उड़ गया तोड़ के पिंजरा मेरा तोता नहीं दु:ख
गर मुझे छोड़ गया तो वो मेरा था भी नहीं
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