रफ़्ता रफ़्ता उम्र मेरी ढल रही है
ज़िंदगी धीरे से मेरी फल रही है
आजकल तन्हा है रातें मेरी यारो
ये मगर दुनिया मुझे क्यों छल रही है
रोज़ काँटे जिस्म पर चुभते मगर क्यों
कामयाबी से ये दुनिया जल रही है
चाँद तारे सब सितारे पास है अब
इक मगर उसकी कमी बस खल रही है
मेरे ख़्वाबों की वो लड़की मानो जैसे
वो यहाँ हुस्न-ए-सहर हर पल रही है
दौर कोई था पुराना सो मगर अब
ज़िंदगी हर दिन यहाँ निश्छल रही है
पेट भर खाना मिले या घर नहीं पर
मुफ़्लिसी दारू के दो बोतल रही है
तल्ख़-गो आदत यहाँ पर आपकी अब
रूह को शायद वो कर बोझल रही है
उसकी शादी हो गई है ग़ैर से पर
आज भी दिल में बसी हर पल रही है
उस ख़ुदा ने है दिया सबको बराबर
हाथ दुनिया किसलिए फिर मल रही है
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