मुकम्मल कुछ नहीं है इश्क़ में एहसास होता है
लिहाजा सब्र का हर इक असासा पास होता है
हिना नक़्क़ाश है ऐसी कि कर डाला बदन मर-मर
कभी मुमताज़ गर कह दूँ कहाँ विश्वास होता है
परेशाँ-हाल ही रस्मन क़बीले बाँध रखते हैं
रिवायत की परस्तिश में भी कोई दास होता है
कहीं दस्तार उतरा है कहीं सर भी क़लम होगा
ज़लालत से तअल्लुक़ है ये बारह-मास होता है
मुक़द्दर का तमाशा है अदब से पेश आने पर
किसी को सल्तनत बख़्शी किसे वनवास होता है
मुकर्रर दिन सभी का है सभी की रुख़्सती है तय
फ़क़ीरों को मुक़द्दर में मिला सब रास होता है
As you were reading Shayari by Niteesh Upadhyay
our suggestion based on Niteesh Upadhyay
As you were reading undefined Shayari