जिस्म मर जाते हैं रूहों की क़ज़ा होती है क्या
बे-तहाशा इश्क़ की भी इंतिहा होती है क्या
क्यूँ नहीं देखूँ मैं उस की ख़ूबसूरत आँखों को
हुस्न के ज़िंदान से चितवन रिहा होती है क्या
चार-सू केवल वही चेहरा नज़र आता है अब
प्यार के एहसास की यूँ इब्तिदा होती है क्या
रोज़ उस के नाम का कलमा पढ़ा करता हूँ मैं
बिन किए महबूब के सज्दे दुआ होती है क्या
क़त्ल करते हो जनाज़ों में भी शामिल होते हो
पूछते क्यूँ हो फिर आख़िर ये रिया होती है क्या
रू-ब-रू महबूब हो कर भी नहीं हो साथ अगर
इस से बढ़ कर इश्क़ करने की सज़ा होती है क्या
वो मुझे मिलता नहीं जो ज़ख़्म भर पाए मिरे
अर्से से जाना नहीं अच्छी शिफ़ा होती है क्या
कम नहीं होते हैं ग़म और जंगें फ़रहत के लिए
ज़िंदगानी भी किसी की आश्ना होती है क्या
हम मोहब्बत की इबादत रब से पहले करते हैं
हम नहीं ये जानते गर्द-ए-अना होती है क्या
कल मोहब्बत करने वाले लड़के ने पूछा सवाल
क्यूँ 'मिलन' हर एक लड़की बे-वफ़ा होती है क्या
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