साज़ हाथों में उठाओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
तुम नज़र मुझ से मिलाओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
ये है पैग़ाम-ए-मोहब्बत इसे छुप कर न सुनो
तुम मिरे सामने आओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
दूर ही दूर जलाओ न मोहब्बत के चराग़
रौशनी बन के तुम आओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
तन्हा तन्हा सी नज़र आती है दुनिया मेरी
तुम मिरे पास जो आओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
बारहा तुम ने सताया है मुझे रात और दिन
मुझ को इतना न सताओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
हम हैं वो इश्क़ के पंछी जो ग़ज़ल कहते हैं
तुम ग़ज़ल मुझ को सुनाओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
तुम को चाहा है तह-ए-दिल से यक़ीनन हम ने
तुम मिरे दिल में समाओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
झूटे वा'दों से तसल्ली नहीं मिलती है 'तरूण'
सच्चा आईना दिखाओ तो ग़ज़ल पेश करूँ
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