शाम होते ही पलट कर उसे घर जाना था
मैं था आवारा मुझे जाने किधर जाना था
बड़ा नुक़सान हुआ इश्क़ की जुर्रत कर के
इससे अच्छा था मुझे इश्क़ से डर जाना था
मैं ने क्यूँ इश्क़ की गलियों में किया शोर बपा
मुझको चुपचाप दबे पाँव गुज़र जाना था
मैं शजर था वो परिंदा सो उसे भी किसी दिन
छोड़ कर मुझको किसी और शजर जाना था
अपना रिश्ता भी किसी रेत महल जैसा था
धीरे धीरे ही सही उसको बिखर जाना था
आज वो ख़ुश है किसी अजनबी की बाँहों में
वो जिसे मुझसे बिछड़ कर कभी मर जाना था
जी बहुत था कि तेरे पास ठहर जाऊँ पर
मैं मुसाफ़िर था मुझे अपने नगर जाना था
जितना रोया हूँ मैं रातों को जुदाई में तेरी
खाली दरिया भी अगर होता तो भर जाना था
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