बिक गए मेरे खेत मुट्ठी भर
रह गई सिर्फ़ रेत मुट्ठी भर
क़ाफ़िला लुट गया सबब उन के
लोग थे जो सचेत मुट्ठी भर
शहर की भूक खा गई धरती
हैं बचे सिर्फ़ खेत मुट्ठी भर
जा रही है फिसलती हाथों से
ज़िंदगी क्या है रेत मुट्ठी भर
वो जो निकले थे राह-ए-ईमाँ पे
बिक गए घर समेत मुट्ठी भर
बारिशों में ग़रीब फिर रोए
गिर गए फिर निकेत मुट्ठी भर
दूर बैठा है हर कोई सच से
हैं कहाँ अब अचेत मुट्ठी भर
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