टूट के फिर बिखर गया हूँ मैं
अपनों पे ही बिफर गया हूँ मैं
पास थे जिनके दूर से भी हम
दूर हैं जब से घर गया हूँ मैं
घर चलाते चलाते फिर इक दिन
घर को अपने निघर गया हूँ मैं
ज़िंदगी बोझ ही रही मुझपे
देखो ना दब के मर गया हूँ मैं
इक बली तो चढ़ानी ही थी मुझे
अपनी ज़ुल्फ़ें कतर गया हूँ मैं
जुर्म ही तो रहा मिरे सर पे
जबकि अपने ही सर गया हूँ मैं
दाग़ ही तो लगाया है ख़ुद पे
दाग़ से ही सँवर गया हूँ मैं
मैंने देखा कि लोग सुनते भी है
बज़्म से भर-नज़र गया हूँ मैं
मैं लिखूँ आज दायरे मे क्यूँ
जबकि कब का पसर गया हूँ मैं
मैं ही तो हद हूँ मेरी राहों का
आज ख़ुद से गुज़र गया हूँ मैं
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