है आलम बेशऊरी का क़रीने छूट जाते हैं
मैं जब हासिल करूँ तारे दफ़ीने छूट जाते हैं
मैं पछताता हूॅं अपने फ़ैसलों पर जब कभी मुझसे
तेरे जैसों की चाहत में नगीने छूट जाते हैं
समुंदर जैसी आँखें हैं तिलिस्माती लब-ओ-लहजा
वो इक टक देखता है और सफ़ीने छूट जाते हैं
मेरे हमदम दिसंबर की नमी रातों में भी अक्सर
तुम्हारी याद आती है पसीने छूट जाते हैं
तुम्हारे साथ में बीते हुए लम्हों के साए में
अगर बैठा रहूॅं पल भर महीने छूट जाते हैं
चलूॅं जो साथ यारों के तो पीछे छूट जाता हूॅं
अगर आगे निकल जाऊँ कमीने छूट जाते हैं
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