0

होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था  - Adil Mansuri

होने को यूँ तो शहर में अपना मकान था
नफ़रत का रेगज़ार मगर दरमियान था

लम्हे के टूटने की सदा सुन रहा था मैं
झपकी जो आँख सर पे नया आसमान था

कहने को हाथ बाँधे खड़े थे नमाज़ में
पूछो तो दूसरी ही तरफ़ अपना ध्यान था

अल्लाह जाने किस पे अकड़ता था रात दिन
कुछ भी नहीं था फिर भी बड़ा बद-ज़बान था

शोले उगलते तीर बरसते थे चर्ख़ से
साया था पास में न कोई साएबान था

सब से किया है वस्ल का वादा अलग अलग
कल रात वो सभी पे बहुत मेहरबान था

मुँह-फट था बे-लगाम था रुस्वा था ढीट था
जैसा भी था वो दोस्तो महफ़िल की जान था

- Adil Mansuri

Shehar Shayari

Our suggestion based on your choice

More by Adil Mansuri

As you were reading Shayari by Adil Mansuri

Similar Writers

our suggestion based on Adil Mansuri

Similar Moods

As you were reading Shehar Shayari