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ज़हर को मय न कहूँ मय को गवारा न कहूँ  - Ahmad Zafar

ज़हर को मय न कहूँ मय को गवारा न कहूँ
रौशनी माँग के मैं ख़ुद को सितारा न कहूँ

अपनी पलकों पे लिए फिरता हूँ चाहत के सराब
दिल के सहरा को समुंदर का किनारा न कहूँ

हिज्र के फूल में वो चेहरा-ए-ज़र्रीं देखूँ
वस्ल के ख़्वाब को मिलने का इशारा न कहूँ

मरते मरते भी ये तहरीर अमानत मेरी
मौत के ब'अद भी जीने को ख़सारा न कहूँ

अपनी तकमील के हर नक़्श में देखूँ उस को
अरसा-ए-दहर को हसरत का नज़ारा न कहूँ

हश्र से पहले मिरे हश्र की तस्वीर न बन
हरफ़-ए-आख़िर को किसी तौर दोबारा न कहूँ

ज़िंदगी जिस की मिरे दम से इबारत हो 'ज़फ़र'
क्यूँ कहे कोई उसे जान से प्यारा न कहूँ

- Ahmad Zafar

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