0

जब तक जुनूँ जुनूँ है ग़म-ए-आगही भी है  - Ahmad Zafar

जब तक जुनूँ जुनूँ है ग़म-ए-आगही भी है
यानी असीर-ए-नग़्मा मिरी बे-ख़ुदी भी है

खिलते हैं फूल जिन के तबस्सुम के वास्ते
शबनम में उन के अक्स की आज़ुर्दगी भी है

कुछ साअतों का रंग मिरे साथ साथ है
वो निकहत-ए-बहार मगर अजनबी भी है

ज़िंदा हूँ मैं कि आग जहन्नम की बन सकूँ
फ़िरदौस-ए-आरज़ू मिरे दिल की कली भी है

इस याद का भँवर मेरे एहसास में रहा
इज़हार-ए-मौज मौज की ना-गुफ़्तनी भी है

पलकों पे चाँदनी के तकल्लुम की आँच थी
होंटों पे गुफ़्तुगू के लिए तिश्नगी भी है

क्यूँ तीरगी से इस क़दर मानूस हूँ 'ज़फ़र'
इक शम-ए-राह-गुज़र कि सहर तक जली भी है

- Ahmad Zafar

Miscellaneous Shayari

Our suggestion based on your choice

More by Ahmad Zafar

As you were reading Shayari by Ahmad Zafar

Similar Writers

our suggestion based on Ahmad Zafar

Similar Moods

As you were reading Miscellaneous Shayari