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हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़  - Ameer Minai

हैं न ज़िंदों में न मुर्दों में कमर के आशिक़
न इधर के हैं इलाही न उधर के आशिक़

है वही आँख जो मुश्ताक़ तिरे दीद की हो
कान वो हैं जो रहें तेरी ख़बर के आशिक़

जितने नावक हैं कमाँ-दार तिरे तरकश में
कुछ मिरे दिल के हैं कुछ मेरे जिगर के आशिक़

बरहमन दैर से काबे से फिर आए हाजी
तेरे दर से न सरकना था न सरके आशिक़

आँख दिखलाओ उन्हें मरते हों जो आँखों पर
हम तो हैं यार मोहब्बत की नज़र के आशिक़

छुप रहे होंगे नज़र से कहीं अन्क़ा की तरह
तौबा कीजे कहीं मरते हैं कमर के आशिक़

बे-जिगर मारका-ए-इश्क़ में क्या ठहरेंगे
खाते हैं ख़ंजर-ए-माशूक़ के चरके आशिक़

तुझ को काबा हो मुबारक दिल-ए-वीराँ हम को
हम हैं ज़ाहिद उसी उजड़े हुए घर के आशिक़

क्या हुआ लेती हैं परियाँ जो बलाएँ तेरी
कि परी-ज़ाद भी होते हैं बशर के आशिक़

बे-कसी दर्द-ओ-अलम दाग़ तमन्ना हसरत
छोड़े जाते हैं पस-ए-मर्ग ये तर्के आशिक़

बे-सबब सैर-ए-शब-ए-माह नहीं है ये 'अमीर'
हो गए तुम भी किसी रश्क-ए-क़मर के आशिक़

- Ameer Minai

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