मैं अपने गिर्द लकीरें बिछाए बैठा हूँ
सराए-दर्द में डेरा जमाए बैठा हूँ
'नबील' रेत में सिक्के तलाश करते हुए
मैं अपनी पूरी जवानी गँवाए बैठा हूँ
ये शहर क्या है निकलता नहीं कोई घर से
कई दिनों से तमाशा लगाए बैठा हूँ
जो लोग दर्द के गाहक हैं सामने आएँ
हर एक घाव से पर्दा उठाए बैठा हूँ
बहुत तलब थी मुझे रौशनी में आने की
सो यूँ हुआ है कि आँखें जलाए बैठा हूँ
ये देखो चाँद, वो सूरज, वो उस तरफ़ तारे
इक आसमान ज़मीं पर सजाए बैठा हूँ
न जाने कौन सा आलम है ये अज़ीज़-'नबील'
मैं रेगज़ार में कश्ती बनाए बैठा हूँ
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