ये ग़ज़ल नज़्म ये नग़मात किसे पेश करूँ
मैं मुहब्बत के अमानात किसे पेश करूँ
मैं हुआ तेरी ज़मीं पर ही ग़ज़लगो साहिर
अपने अशआर-ए-इबादात किसे पेश करूँ
मेरे जीने को बहुत है तिरे नग़्मे साहिर
आलम-ए-जज़्ब-ए-किफ़ायात किसे पेश करूँ
बात इतनी है कि महबूब मिरा है साहिर
बात इतनी भी मैं बे-बात किसे पेश करूँ
इश्क़ मुझको न मजाज़ी न हक़ीक़ी मालूम
इश्क़ साहिर है ये ख़ुतबात किसे पेश करूँ
दाद क्या दूँ तिरी ग़ज़लों की तुझे मैं साहिर
बस कि वहशत की ये बहुतात किसे पेश करूँ
क्यूँ कहा तूने कि शाइर है तू पल दो पल का
इंतिहाई मिरे जज़्बात किसे पेश करूँ
ख़ाक से बुत हुआ फिर बुत से हुआ मैं इंसाँ
कैसे नाज़िल हुए नग़मात किसे पेश करूँ
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