इस क़दर ज़िंदगी के सताए हुए
मौत को छोड़ अब सब पराए हुए
लो सजा ली है फिर से लबों पर हँसी
और सीने में ग़म भी दबाए हुए
बेवफ़ाई से उसका हुआ राब्ता
और हम थे कि रिश्ता बनाए हुए
कैसे आसेब में ज़िन्दगी की गुज़र
आस के दीप देखे बुझाए हुए
दूरियाँ कितनी हों भूलता ही नहीं
यूँ रखा दिल से उसको लगाए हुए
दर्द मिलता रहा बेतहाशा 'प्रिया '
और लेते रहे सर झुकाए हुए
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