ज़बाँ से लफ़्ज़ आँखों से न अब आँसू निकलते हैं
न पलकों पे मेरी कोई नए से ख़्वाब पलते हैं
हुई नफ़रत उगे अहसास के सारे दरख़्तों से
कि संग-ए-दिल पे हूँ हैराँ मेरे क्यों तुख़्म फलते हैं
किसी के हाथ में कुछ भी नहीं समझो मेरे यारो
कहाँ आड़ी लकीरों से नसीबा खेल चलते हैं
अजब फ़ितरत है लोगों की न ख़ुद का अक्स पहचानें
कभी चेहरे बदलते हैं कभी रंगत बदलते हैं
हुजूम-ए-ग़म में उलझी तो सुख़न से दोस्ती कर ली
समंदर बेकली के फिर ग़ज़ल बन के उछलते हैं
भरोसा टूट जाए तो तलाफ़ी हो नहीं सकती
'प्रिया' गिर्दाब में कब तक फँसे रिश्ते सँभलते हैं
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