गिला कोई नहीं है ज़िन्दगी से
फ़क़त ज़ख़्मी हुए हम तो ख़ुदी से
लगेगी चोट फिर हर बार की तरह
लड़ेंगे जंग जो गर सादगी से
है ये मुमकिन कि वो फिर तोड़ जाए
भरोसा उठ गया है आदमी से
अदब लहजा निगाहें ज़ुल्फ़ आरिज़
गुज़र होगी उसी की आशिक़ी से
नशीली सी हुई है क्यों शब-ए-वस्ल
कहा क्या चाँद ने कुछ चाँदनी से ?
मज़ा आने लगा तन्हाइयों में
नहीं डरते किसी की बे-रुख़ी से
तलाशूँ राम सा कोई जहाँ में
करे जो प्रेम बस इक जानकी से
हुनर जब से सुख़नकारी का आया
हुआ है इश्क़ शेर-ओ-शायरी से
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